कंपनीज कम्पटीशन से डरती हैं, और इसी कारण वे इंडियन मेडिसिन्स को मार्केट एक्सेस नहीं देतीं — चाहे वो दवाइयाँ ग्लोबली रेगनाइज़्ड और एफेक्टिव क्यों न हों। अब सोचिए, जब यूरोप, अमेरिका, जापान जैसे सख्त रेगुलेटरी वाले देश इंडियन फार्मा प्रोडक्ट्स को स्वीकार कर रहे हैं, तो चाइना का बहाना कि क्वालिटी ठीक नहीं है — ये कहीं न कहीं एक साफ इशारा है कि मामला क्वालिटी का नहीं, पॉलिटिकल और इकनॉमिक कंट्रोल का है।
तो क्या है ट्रोजन हॉर्स वाली बात?
चाइना कह रहा है — “हम ट्रेड डेफिसिट कम करना चाहते हैं, हम इंडियन गुड्स खरीदेंगे, हम इन्वेस्टमेंट चाहेंगे।” सुनने में बड़ा मिठा लगता है, लेकिन ये ट्रैप है।
- Reciprocity का दबाव: अगर इंडिया ने हामी भर दी, तो चाइना बदले में चाहेगा कि इंडिया भी अपने मार्केट में चाइनीज गुड्स के लिए रास्ता खोले। यानी दरवाज़ा सिर्फ एक तरफ नहीं खुलेगा।
- Rerouting बंद हो जाएगा: जैसा आपने देखा, अभी चाइना अपने सामान को ASEAN के रास्ते इंडिया भेजता है। अगर डायरेक्ट चैनल्स खुले, तो ये चाइनीज डंपिंग और सस्ता सामान इंडिया की MSMEs को और बर्बाद करेगा।
- पिछले अनुभव: चाइना पहले भी ऐसे वादे कर चुका है — कि “हम ट्रेड डेफिसिट कम करेंगे”, लेकिन आंकड़ों में कोई फर्क नहीं पड़ा।

तो इंडिया क्यों सावधान है?
- हमारी इंडस्ट्री को ग्रो करने का समय चाहिए। अभी अगर चाइनीज गुड्स की बाढ़ और बढ़ी, तो Make in India प्रोग्राम कमजोर हो जाएगा।
- चाइना का व्यवहार भरोसेमंद नहीं रहा — चाहे वो डोकलाम हो, गलवान हो, या RCEP जैसी ट्रेड डील।
- India wants Strategic Autonomy – न तो चीन का पिछलग्गू, न अमेरिका का।
नतीजा क्या निकलता है?
- चाइना इंडियन मार्केट को खोना नहीं चाहता, इसलिए “ट्रोजन हॉर्स” जैसी डिप्लोमैसी कर रहा है।
- इंडिया जानता है कि अगर उसने जल्दबाज़ी की, तो चाइना को फायदा और हमें लॉन्ग टर्म नुकसान होगा।
- असली समाधान है — डाइवर्सिफिकेशन ऑफ सप्लाई चेन, और अपने इंडस्ट्री को self-reliant बनाना।