पुलवामा के बाद आतंकवाद के खिलाफ कूटनीतिक वार्ताओं में नई लहर लाने वाला ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अब देखा जा सकता है भारतीय एकता और सियासी संलयन की मिसाल के रूप में। इसी कड़ी में प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात की—जो पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ भारत की नीतियों को दुनिया के सामने रखने गए थे। यह बैठक नई राजनीतिक इकोसिस्टम में कूटनीतिक साझेदारी की दिशा का एक उदाहरण बनी।
क्यों शुरू हुआ यह अभियान?
22 अप्रैल को पहलगाम में हनुमान चटर्जी सहित 26 नागरिकों की हत्या के बाद ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया गया था। 7 मई को भारतीय सेना द्वारा आतंकवादी ढांचों पर कड़ी कार्रवाई की गई, जिसे ‘नो-आज़मोटरी’ यानी “क्रॉस बॉर्डर टेरर स्ट्राइक” कहा जा सकता है । इसके अंतरराष्ट्रीय असर को कायम रखने के लिए यह आउटरीच अभियान शुरू किया गया।
कौन कौन गया विदेश?
- 50 से ज़्यादा सांसद, जैसे कि बीजेपी से रवि शंकर प्रसाद, शिवसेना से श्रीकांत शिंदे, कांग्रेस से शशि थरूर व अन्य प्रतिनिधियों के नेतृत्व में
- 30 से अधिक देशों में राजदूत स्तर की बात, थिंक‑टैंक और मीडिया से मुलाकात: अमेरिका, ब्राज़ील, रूस, कनाडा, स्पेन, इटली, कतर, अफ्रीका समेत
विदेश प्रतिक्रिया और संदेश
- सभी मुलाकातों में भारत की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति स्पष्ट रूप से सामने आई—पाकिस्तान द्वारा आतंक प्रायोजित और वित्त पोषण पर नकेल कसने की चर्चा हुई, FATF ग्रे लिस्ट कार्रवाई की पैरवी भी
- राजनीति से ऊपर उठकर इस अभियान को साझी मुलाकात और जनता की आवाज़ की स्थायी मिसाल माना गया
अब दिल्ली में क्या चर्चा रही?
PM मोदी ने प्रतिनिधिमंडलों को पहुंचने पर उनकी सराहना की और कहा कि यह एक ‘सबल राष्ट्रीय आवाज़’ का प्रतीक है ।
शशि थरूर ने उल्लेख किया कि यह मुलाकात औपचारिक बैठक नहीं थी, बल्कि अनुभव साझा करने वाली सजीव छल‑कपट-रहित चर्चा रही ।
राजनैतिक सहमति या अलग मत?
ऑपरेशन सिंदूर ने मोदी सरकार द्वारा राजनीतिक एकता दिखाने की रणनीति को नई ऊंचाई दी, लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान जैसे विपक्षी नेताओं ने इसे सिर्फ ‘अंतरराष्ट्रीय दिखावा’ बताया, कहते हैं “जब जंग का नतीजा स्पष्ट हो, तब विदेशों में दल भेजने की ज़रूरत क्या थी?” ।
क्या आगे का रास्ता?
દેશ के भीतर, केंद्र सरकार अब ‘करारों और संसदीय चर्चा’ के लिए दबाव बढ़ा रही है। 16 कांग्रेस सहित INDIA ब्लॉक पार्टीज़ ने विशेष सत्र बुलाने का भी फार्मल आग्रह किया—ताकि ऑपरेशन सिंदूर, कश्मीर, ceasefire मुद्दों पर खुलकर चर्चा हो सके ।
निष्कर्ष
ऑपरेशन सिंदूर एक राजनैतिक-सामाजिक सहमति से यात्रा करता दिख रहा है। जहाँ सुप्रीम नेता ने विदेशी मंचों पर भारत की एकता और सुरक्षा संदेश को उजागर कराया, वहीं विपक्ष की आलोचनात्मक दृष्टि इस संदर्भ में राजनीति और रणनीति पर सवाल खड़े करती है।
भारत की राजनीति में शायद जल्द ही एक नई बात सामने आयेगी—क्या राजनैतिक विविधता के बावजूद ‘एक आवाज़ बन कर चलना’ ही आने वाले समय की बनावट तय करेगा?