बिहार में मतदाता सूची में बदलाव: SIR की समीक्षा और प्रक्रिया की पारदर्शिता

चुनाव आयोग द्वारा बिहार में Special Intensive Revision (SIR) के रूप में मतदाता सूची को व्यापक रूप से संशोधित करने पर राजनीतिक विवाद छिड़ गया है। इसकी प्रक्रिया, प्रभाव और विरोध को इस ब्लॉग में समझाया गया है।


📌 SIR क्या है और क्यों शुरू किया गया?

  • 24 जून 2025 को चुनाव आयोग ने बिहार में SIR की घोषणा की, जिसका उद्देश्य है पुराने, डुप्लिकेट, मृत या गलत पते वाले मतदाताओं की पहचान कर उन्हें हटाना और नई पहचान बनाने की विश्वसनीय सूची तैयार करना
  • यह पहली बार 2003 के बाद हो रहा है, जब राज्य स्तर की जनसंख्या संरचना में बड़े बदलाव आए हैं।

👥 कितने नाम कटने की तैयारी है?

  • कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ ने गणना फ़ॉर्म जमा किया — जो 91.7% भागीदारी दर्शाता है।
  • इसमें लगभग 65 लाख नाम हटाने का प्रस्ताव है। इनमें से 20 लाख मृतक, 28 लाख प्रवासी/व्यक्ति जिनकी जगह नहीं मिल रही, और लगभग 7 लाख डुप्लिकेट प्रविष्टियाँ हैं।

🧾 वोटर सूची से नाम कटने की प्रक्रिया

  • आयोग ने स्पष्ट कहा है कि बिना सूचना (notice) और ‘speaking order’ के किसी भी व्यक्ति का नाम मतदाता सूची से हटाया नहीं जाएगा
  • यदि मतदाता निर्णय से असहमति रखते हैं तो वे जिला मजिस्ट्रेट या मुख्य निर्वाचन अधिकारी के पास अपील कर सकते हैं।
  • शिकायतों को आसान बनाने के लिए स्वयंसेवक प्रशिक्षित किए जा रहे हैं और अपील के लिए मानक प्रारूप तैयार किया गया है।

⚠️ विवाद एवं राजनीतिक प्रतिक्रिया

  • विपक्षी दलों (जैसे RJD, कांग्रेस, TMC) ने इस प्रक्रिया को ‘लोकतंत्र में विलोप’ और ‘प्रजातंत्र विरोधी’ बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर की हैं।
  • ADR के सह-संस्थापक जगदीप छोकर का कहना है कि SIR कानूनी तो हो सकती है, लेकिन प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने पर इसे अनैतिक और भेदभावपूर्ण माना जा सकता है।

📅 समय-सारिणी और आगे की प्रक्रिया

  • मसौदा मतदाता सूची 1 अगस्त को प्रकाशित होगी। इस पर दावा एवं आपत्ति की अवधि 1 सितंबर तक रहेगी
  • अंतिम मतदाता सूची 30 सितंबर तक जारी की जाएगी, जिससे अक्टूबर–नवंबर 2025 में संभावित विधानसभा चुनावों से पहले तैयारी पूरी हो सके।

🏛️ निष्कर्ष: लोकतंत्र या निषेध?

चुनाव आयोग का कहना है कि SIR लोकतंत्रीय प्रक्रिया को सुदृढ़ करने की कोशिश है जिससे केवल पात्र मतदाताओं की भूमिका सुनिश्चित हो सके। लेकिन विपक्ष इसे दलित, अल्पसंख्यकों और अप्रवासी श्रमिकों को रोकने की साजिश मान रहा है।

इतिहास बताता है कि बिहार में बड़े चुनाव सुधार पहले भी सफल रहे हैं—1995 और 2005 के निर्वाचन सुधारों ने लोकतंत्र को मजबूत किया था। अब आयोग एक बार फिर पारदर्शिता और जवाबदेही पर जोर दे रहा है, लेकिन प्रक्रिया की निष्पक्षता पर उठे सवाल और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई इसे सजग बना देती है।